मुरिया विद्रोह सन् 1876 बस्तर की स्वशासन विद्रोह एवं मुरिया दरबार की कोयतुर विश्लेषण
मुरिया विद्रोह व मुरिया दरबार एक विश्लेषण 
सितंबर 30, 2016
मुरिया विद्रोह सन् 1876 बस्तर की स्वशासन विद्रोह एवं मुरिया दरबार की कोयतुर विश्लेषण
बस्तर राज परिवार के सबसे निरंकुश राजा भैरमदेव के शासन काल में यह विद्रोह हुआ था ।मुरिया विद्रोह सामंतों तथा औपनिवेशिक शासकों के विरुद्ध खुला विद्रोह था । यह विद्रोह जन विद्रोह था। यह विद्रोह आदिवासी का  शोषकों को खुली चुनौती थी चाहे शोषक सामंत हो या औपनिवेशक । जगदलपुर से 6 मील दूर आरापुर में इस विद्रोह का केन्द्र रहा है। शोषक वर्ग से क्रुद्ध आदिवासियों ने झाड़ा सिरहा को इस विद्रोह का प्रमुख नियुक्त किया । जब विद्रोह की रणनीति तैयार हुई तब प्रत्येक नार में एक तीर भेजकर खलिहान में आम की टहनी को रोपा गया । इस संदेश से आरापुर में लगभग 700 मुरिया सैनिक स्वस्फूर्त जमा हो गये । हथियार पारम्परिक पत्थर, गाय हाड़ा, तीर धनुष बाण भाला आदि एकत्र किया गया। उस दौर में जब शिक्षा का कोई प्रबन्ध नही था जिस दौर में "थानागुड़ी या गोटुलगुड़ी" ही संचालित होता था जो शिक्षा का केन्द्र था। इसकी महत्ता व प्रभाव को समझ सकते हैं । 

इस विद्रोह के प्रमुख कारण पिठू दीवान गोपीनाथ कपड़दार की कुकर्म व निरंकुश नाम मात्र के राजा भैरमदेव ही प्रमुख थे । अंग्रेज इस विद्रोह के सह लाभार्थी थे (डा. हीरालाल शुक्ल:बस्तर का मुक्तिसंग्राम)। निरंकुश प्रशासन व गोपीनाथ कपड़दार की अत्याचार व अंग्रेजों की दखलंदाजी बढ़ गयी थी इसी दरमियान भैरमदेव की बम्बई में प्रिंस आफ वैल्स की सलामी हेतु ब्रिटिश सरकार का फरमान ने मुरिया आदिवासियों को राजा की निरंकुशता ने आग में घी का काम किया। जब राजा बम्बई के लिए प्रजा की बातों को नजरअंदाज कर सिंरोचा ले लिए पीठू गोपीनाथ कपड़दार के चापलूसी के तहत निकल रहे थे तब मारेंगा गांव पहुंचे ही थे कि आगरवारा परगना के मुरिया आदिवासियों ने राजा को जाने से मना कर दिया । इस बीच पिठू दीवान गोपीनाथ भी नजर आए।
आदिवासियों की क्रुद्ध हाथें उनकी ओर पारम्परिक हथियारों से वार करने के लिए टूट पड़े। वह राजा के प्रश्रय में छिप गया । राजा ने आदिवादियों पर गोली चलाने का आदेश दिया । राजा तथा लड़ाके  मुरियाओं के मध्य घमासान युद्ध हुआ इस युद्ध में 6 मुरिया आदिवासी मारे गये और 18 आदिवासी गिरफ्तार किये गये । इन गिरफ्तार लड़कों को कुरंगपाल ले जाया गया जहां चापलूस गोपीनाथ कपड़दार ने सभी आधिकारिक सीमाएं लांघ ली उन्हें भी लड़ाके जाकर वापस करा लिए। राजा वापस जगदलपुर लौट गये । अब विद्रोही राजमहल की ओर कूच किये। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के रेजीमेंट प्रमुख मैकजार्ज के अनुसार जगदलपुर में तीन हजार मुरिया महल को घेर लिये थे जबकि प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार यह संख्या बीस हजार से अधिक रही होगी । 

2 मार्च 1876 का दिन था क्रांतिकारी इतिहास में इस तिथि को " लाल दिवस" भी कहा जाता है। मुरिया आदिवासियों ने योजना बनाई कि राजधानी पहुंचने  वाले संवाद माध्यमों को समाप्त किया जाये । महल को चारों ओर से घेर लिया जाये तथा इस प्रशासनिक केन्द्र को सामंती शक्तियों से मुक्त किया जाये । आदिवासियों ने पानी की टंकियों तथा तालाबों पर भी अधिकार कर लिया था( बस्तर भूषण: केदारनाथ ठाकुर 1908)। इस प्रकार मुरिया आदिवासियों ने चार महीने तक राजधानी को बंधक बना कर रखा इस बीच लड़कों की संख्या में कमी हुई। ऐसा संयमित विद्रोह आदिवासी ही कर सकता है। 

अब राजा व दीवान गोपीनाथ ने आदिवासियों के बीच पैठ रखने वाले राजगुरू गोकुलनाथ मिश्र को यहाँ पर  दुरुपयोग कर उसके माध्यम से एक माहरा महिला के हांडी में पेज रखकर पाती को मोम में चिपकाकर उस पेज में डालकर महल से बाहर निकलवाया यही इस विद्रोह का टर्निंग पाइन्ट था । यह पाती को कोटपाड़ में नागपुर भेजा गया कि हमें सैनिक सहायता दी जावे कि हम महल में चार महीने से बंधक बनाये गये हैं।देखिए रण में विश्वास पात्र भी शत्रु से कम नहीं होता यहाँ पर विश्वसनीयता ने ही ईमान पर छुरा घोंप दिया । अंग्रेज भी मौके की तलाश में थे। मैकजार्ज के अनुसार " राजा की क्रोधोन्मत्त अपील पर सिंरोचा के डिप्टी तथा जैपुर के असिस्टेंट एजेण्ट ने सैन्य दल भेजा।"
मई 1876 में 5 हजार सैनिक सिंरोचा से रवाना हुई । रायपुर, जैपुर ,सिंरोचा से सैनिक टुकड़ियां आ गई और आदिवासी लड़ाकों पर गोलियां बरसानी चालू की । चार महीने से घेरे आदिवासी भी मानसिक रुप से निश्चिन्त हो चुके थे कि अब तो महल से एक ना एक दिन समर्पण होगा ही लेकिन वो पैठ रखने वाले राजगुरू व माहरा औरत की साजिश ने विद्रोह का स्वरूप ही बदल दिया । यथासम्भव मुरिया लड़ाकों ने पारम्परिक हथियारों से सैनिकों को भी तीर बरसा कर कुछ सैनिकों का नेस्तनाबूद कर दिये ।झाड़ा सिरहा जो नेतृत्व कर था वह भी इस रण में शहीद हो गया । इस विद्रोह की जांच ब्रिटिश सरकार ने भी अपने स्वार्थ साधने के लिए ही  करवायी ।" ब्रिटिश सरकार इस बात पर विशेष चिन्तित थी कि राज्य के प्रभावशाली अधिकारियों ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है और राजा की कमजोरियों का फायदा उठाया है।" एक आदेश से सारे कायस्थ कर्मचारियों को बस्तर से बाहर कर दिया गया, क्योंकि आदिवासियों ने इन मुंशियों (कायस्थ) को ही अपना प्रथम शत्रु माना था (मैकजार्ज) संदर्भ : डा. हीरालाल शुक्ल: बस्तर का मुक्तिसंग्राम।

अब अंग्रेज आदिवासियों व राजा के मध्य समन्वय स्थापित करना चाहते थे इसी कड़ी में 8 मार्च 1876 को जगदलपुर में पहली बार एक मुरिया दरबार की व्यवस्था की थी।

जहाँ सिंरोचा के डिप्टी कमिश्नर मैकजार्ज ने राजा, उनके अधिकारी तथा मुरिया लड़ाकों को सम्बोधित किया तथा सभी ने उन्हें सुना । मैकजार्ज ने आदिवासियों की यातनाओं को कम करने का वादा किया । मुरिया लड़ाकों ने मैकजार्ज को भरोसा दिलाया कि राजा भैरमदेव को भी बस्तर के आदिवासी राजा ही  मानते हैं (चीश्लोम, जनवरी 1886, अप्रैल 1886, सितम्बर 1886, नेशनल आर्काइव्स, अप्रकाशित) । इसलिए उसे विद्रोह का मुखिया मानते हुये भी निकालने का साहस न कर पाये, अन्यथा बस्तर उनके नियंत्रण से बाहर होता।

मैकजार्ज ने आदिवासियों को इस बात के लिए राजी किया कि भविष्य में जब कोई शिकायत हो तो कानून को अपने हाथ में लेने के बजाय उससे अपनी शिकायत दर्ज कराएं । मैकजार्ज ने राजा तथा उनकी आदिवासी प्रजा के बीच पुनः मेल मिलाप करवाया और राजा से कहा कि वह आदिवासियों की शिकायतों को दूर करें । उसने भी बस्तर के प्रशासन की कमजोरियों को दूर करने का संकल्प लिया । सन् 1876 की उक्त मुरिया सभा से ही स्वशासन की जांच पड़ताल हेतु मुरिया सभा आयोजित की जा रही है। जो कालान्तर में राज शाही शब्दों के कारण ही दरबार में परिवर्तित हो गई है (डा. हीरालाल शुक्ल: बस्तर का मुक्तिसंग्राम)।

विश्लेषण : मुरिया विद्रोह शहीद झाड़ा सिरहा के नेतृत्व में लड़ा गया था । इस विद्रोह का प्रमुख कारण राजा की निरंकुशता व गोपीनाथ कपड़दार जैसे चापलूस पिठू दीवान की दलाली को खत्म करके नागवंशीय राज व्यवस्था में स्थापित मांझी मुखिया गांयता परगना स्वशासन की प्रतिबद्धता को स्थापित करने के लिए थी। लेकिन राजा व मंत्री की निरंकुशता ने जनक्रांति को जन्म दिया । मांझी मुखिया गांयता गंणतंत्र के महा जनक हैं । नाग वंशीय राज व्यवस्था ज्यादा प्रगतिशील इसलिए थी इसकी उपस्थिति आज भी बस्तर में दिखाई देती है। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करें तो मुरिया दरबार एक मात्र औपचारिक रस्म बन गयी है। जिस स्थान पर झाड़ा सिरहा नामक मुरिया मांझी ने चार महीने तक रहकर मुरिया विद्रोह का नेतृत्व किया वहीं पर सिरहासार भवन स्थापित है ।
मुरिया विद्रोह जिस व्यवस्था की खिलाफत कर स्वशासन (परगना व्यवस्था) के लिए झाड़ा सिरहा व लड़ाके मुरियाओं ने आहुति दी वहीं पर इसकी औचित्य पर वर्तमान मांझी चालकी मेमबरीन मुखिया गांयता क्या कर रहे हैं ...आदिवासियों की संघर्ष को सूक्ष्म तम अध्ययन कर उसकी व्यापकता को समझ कर सम्मान देने की जरूरत है। आज बस्तर के कितने आदिवासी शहीद को शहीद का दर्जा प्राप्त है? ??? संभवतः कोई नहीं ... हमें इनकी इतिहास से कोसों दुर रखा गया ...डा. हीरालाल शुक्ल निसन्देह जीवित अपवाद इतिहास कार हैं जिन्होंने बस्तर की अबुझ जन नायकों को उचित स्थान व पहचान दिया है। आज बहुत शोध व अध्ययन की जरूरत है। बिना पूर्वाग्रह तटस्थ लेखन बस्तर के संदर्भ में अपवाद हो जाती है अपवाद डा. हीरालाल शुक्ल की "बस्तर की मुक्तिसंग्राम " के ।

बस्तर दशराहा में यह मुरिया दरबार एक भाग है। अभी और कई भाग का अध्ययन शेष है।

वर्तमान परिदृश्य में एक पुनः मुरिया विद्रोह की दरकार यहाँ की माटी याया की पुकार है। मुरिया विद्रोह की वयस्क विद्रोह गुंडाधुर धुरवा की बुमकाल विद्रोह सन् 1910 की है। दोनों विद्रोह जल जंगल जमीन के साथ सामंत व औपनिवेशक समूह के विरुद्ध मावा नाटे मावा राज की ही है। परंतु डा.हीरालाल शुक्ल को छोड़कर बाकी पूर्वाग्रह के शिकार लोगों ने इसे सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ बताने की कुत्सित साजिश रचा जो निंदनीय है। बस्तर को साजिशों ने मारा है। साजिश बेनकाब हो रहें हैं अब ...बस्तर का माटीदेव बड़ादेव माटीपुजारी आंगापेन ...कंडेरागाल भूमियार पतियार भैंसासुर नौ कनयांग, चिकला याया, सब कोयतोरक को आवाज दे रहे हैं ... क्योंकि यहाँ की माटी माटी पुझारी को जानती है पहचानती है और गलत करने पर सजा भी देती है इसलिए यहाँ कोयतोर के पेन साक्षात् हैं इसलिए यहाँ की माटी के कण कण में पेन है यहाँ की हर वृक्ष में पेन है हर नदी नाले में कनयांग है हर डबरी में भैंसासुर है हर पहाड़ में मठाधीश लिंगो है हर गांव में रावपेन रावण है हर गाँव में भीमालपेन हैं हर गाँव में चिकला याया है हर गांव का भूमियार है परियात है ...अभी के मांझी गुफा गये हैं कि मांझी कौन हैं? ??????


माखन लाल सोरी
जगदू गुड़ा, लंकाकोट, कोयामुरी दीपा

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